आइए जानते हैं, अपने प्यार को बचाने, बचाए रखने की चार तरकीबें..




'फितूर', यानी एक प्रकार का पागलपन, अपने प्यार को पाने का पागलपन, जो किसी भी कीमत पर मिलना ही चाहिए। एक के प्रेम को पाने का यही फितूर फैलकर खुदा को पाने का फितूर भी बन सकता है, इसलिए प्रेम इतना बेशकीमती है कि चाहे जो भी हो, जैसे भी हो, इसे बचाया ही जाना चाहिए। इसके बारे में अक्सर कहा तो यही जाता है कि 'मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है' (संसार के संदर्भ में), लेकिन कुछ लोगों ने इसके मिलने पर भी इसे सोना बनाकर दिखाया है।

फिल्म और फिल्मी गीतों में अलग-अलग तरीके से यही बात कही जाती है कि 'प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है...' इसी तर्ज पर यह बात भी कही जा सकती है कि प्रेम खोया नहीं जाता, खो जाता है। प्रेम का होना भले ही हमारे हाथ में न हो, लेकिन उसका खोना न खोना हमारे हाथ में ज़रूर है। वह कैसे, कुछ इसी तरह की तरकीबों पर हम यहां बात करेंगे।

तरकीब नंबर एक...
पहले एक सच्ची घटना। दोनों के बीच छह साल तक प्रेम-प्रसंग चला। विद्रोह करके दोनों शादी की डोर में बंधे। आठ साल तक बंधे रहने के बाद यह बंधन बर्दाश्त के बाहर होने लगा, जैसा अक्सर होता है। मैंने पत्नी से पूछा कि 'आखिर तुम्हे उस लड़के में ऐसा क्या दिखा था कि तुम उस पर इतनी लट्टू हो गई थी...'' उसका जवाब था, 'वह बहुत इंटेलिजेंट था...'' ''तो क्या अब इंटेलिजेंट नहीं रहा...?'', इस प्रश्न का उत्तर मिला, ''नहीं, वह अब भी इंटेलिजेंट है...''
मैंने पतिदेव से जब वही पहला वाला प्रश्न किया कि ''तुम उसकी किस अदा पर मरने लगे थे...'', तो उसका उत्तर था कि ''वह बहुत भोली-सी लगती थी...'' उसका मतलब मासूमियत से था। मैंने अब दूसरा सवाल दागा कि 'क्या अब वह ज्वालामुखी बन गई है...?', तो उसने अपनी गर्दन को दाएं-बाएं हिलाते हुए कहा, 'नहीं, वह अब भी वैसी ही है...''

अब मेरा उन दोनों से एक साथ यह प्रश्न था, ''आप दोनों के प्रेम के जो-जो आधार थे, यदि वे सही थे, और आज तक बने हुए हैं, तो फिर प्रेम कहां चला गया...? क्यों चला गया...?" दोनों सोचने को मजबूर हुए, और उनका अलसाया हुआ प्रेम फिर ताजा हो उठा।
तरकीब नंबर दो...
पहले आप प्रेमी-प्रेमिका थे, अब आप पति-पत्नी बन गए हैं। रिश्ता तो बदल गया है, दिमाग नहीं बदला है। पत्नी सोचती है, ''पहले मेरे लिए आसमान से सितारे तोड़कर लाने का वादा करने वाले इस शख्स को अब हो क्या गया है कि घर आते समय कद्दू भी लाने को तैयार नहीं होता। घर-गृहस्थी में उलझी पत्नी को देखकर पति को लगता है, ''यह तो वह नहीं है...''

इसे कहते हैं ''क्राइसिस ऑफ आइडेंटिटी'', यानी पहचान का संकट। जब हम अपनी पहचान को भूल जाएंगे, तो जाहिर है कि हमें यह कैसे याद रहेगा कि 'हमें अभी करना क्या चाहिए...'' फलस्वरूप सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने लगता है।

तरकीब नंबर तीन...
प्रेम दिल से किया जाता है, दिमाग से नहीं। मुश्किल तब आती है, जब प्रेम के मिलने के बाद लोग उसमें अपने दिमाग को घुसपैठ की इजाज़त दे देते हैं। जब दिमाग उसके बारे में कुछ जानता ही नहीं, तो फिर आप खुद बताएं कि वह उसके बारे मे सही निर्णय कैसे ले सकता है। वैसे भी रिश्ता चाहे जो भी हो, प्रेमी-प्रेमिका का, पति-पत्नी का या फिर दूसरा कोई भी, रिश्तों की समीक्षा करनी शुरू कर दीजिए, यह शुरुआत आपको रिश्तों की समाप्ति तक पहुंचा देगी।
 
तरकीब नंबर चार...
आखिरी बात यह कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वह आपसे प्रेम करता / करती है या नहीं। महत्वपूर्ण केवल यह है कि आप उससे प्रेम करते हैं या नहीं...? इसके लिए, यदि आप चाहें, तो एक फिल्म देख सकते हैं, जिसका नाम है 'इफ ओनली'', जिसमें एक अधेड़ टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी में बैठे परेशान नौजवान से पूछता है कि 'क्या तुम सचमुच उससे प्यार करते हो...'' उत्तर 'हां' में मिलने पर वह एक मंत्र देता है - ''दैन जस्ट लव हर...''

यानी फिर कुछ भी सोचो मत, केवल प्यार करो और करते रहो..

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